सारी राह
मेरा जीवन
आकांक्षाओं की आग में जलता रहा
और
परिवेश की भट्टी में धधकता रहा
राख बनता रहा ।
अंतत:
जब मैं घर पहुंचा
तो सब कुछ
जल कर ख़ाक हो चुका था,
बाकी थी तो
राख के ऊपर पड़ी
कुछ काली, जली हड्डियाँ,
मैंने उन्हें भी इकठ्ठा किया
और गँगा में बहा दिया ।
नि:संदेह, अब कुछ शेष नहीं था ॥
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