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चल चलें : कविता

चल चलें नदी किनारे
कि रात घनी हो गयी
सुकून होगा थोड़ा वहां
मशक्कत दिन की अब कम होगी

ऐसा कर
उधेड़बुन का बक्सा रख दे
अहाते की अलमारी में
और संदूक भीतर जो बंद है
सुकून का झोला
उससे तू उठा ले

चलेंगे फिर
हौले क़दमों से
किनारे किनारे
कहीं देख कर साफ़ सा पत्थर
रात की चादर बिछा लेंगे
चाँद की रोशनी की रुई बना लेंगे
और चुपचाप
बैठ कर सुबह तलक
इत्मीनान से
अंधेरों की कत्तरें सिलेंगे
परछाइयां दोनों संग बुनेंगे।

Image Reference – https://pxhere.com/en/photo/983267

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